संथाल जनजाती की देन जादुपतुआ चित्रकला ऊर्ध्वाधर स्क्रॉल पेंटिंग हैं जो काफी पहले कपड़ों पर प्रदर्शित की जाती थीं । अब यह चित्रकला कागजों पर भी की जाने लगी है।
जादुपतुआ चित्रकला पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद, बीरभूम, बांकुरा, हुगली, बर्दवान और मिदनापुर जिलों, झारखंड और बिहार के संथाल इलाके में भी बहुत लोकप्रिय थी।
यह चित्र ज्यादातर झारखंड के संथाल परगना में पाए जाते हैं और उनके अधिकांश चित्रकार आदिवासी गांवों के बाहरी इलाके में रहते हैं।
जादो के बारे में एक कहानी जो लोकप्रिय है वह यह है कि आदिवासी जन एक गांव से दूसरे गांव में घूमते थे और अपने मूल्य विषयों को पट्टों पर चित्रित करते थे, जो आम तौर पर छह से दस फीट लंबाई और आठ से बारह इंच चौड़ाई में होते थे।
इसी कहानी का संदर्भ एक संथाली गीत के शब्दों में जब अनुवाद किया जाता है , मिलता है।
गीत के बोल कुछ इस प्रकार हैं- जोगी, आप कहीं भी यात्रा कर सकते हैं, कृपया मेरे मृत माता-पिता का चित्र बनाएं।
सबसे पहले आदिवासी महिलाओं ने अपने चित्रों के माध्यम से कलाकारों से अपने मृत माता-पिता के जीवन की कहानियों को चित्रित करने की कामना की थी।
इसके बाद से ही जादो हनपुरी में भटक रही दिवंगत आत्माओं का चित्रण करना प्रथा बन गया, जिसका अर्थ है संथाली में मृत्यु के बाद की दुनिया।
प्रसिद्ध विद्वान बासुदेव बेसरा ,जो कि एक संथाली है ,के अनुसार चित्रों का एक लंबा इतिहास है जिसका संबंध चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल से किया जा सकता है।
इन चित्रों का सबसे पहला उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है, जिसका उल्लेख यमपत्ता के रूप में किया गया है।
अक्सर ऐसा कहा जाता है कि चित्रों में छिपे संदेश जासूसी कारणों से किए गए थे।
दुमका के मस्सालिया ब्लॉक के दो कलाकार, कमलापति चित्रकार और गणपति चित्रकार, जिन्हें 2005 में ईस्ट जोन आर्ट एंड कल्चर सेंटर, कलकत्ता द्वारा सम्मानित किया गया था, को लगता है कि यह अद्भुत कला जो आज तक बजी हुई है अब विलुप्त होती जा रही है ।
ऐसा चित्रों के विषय वस्तु को विविधता मिलने उपरांत भी हो रहा है। कई कलाकारों ने अब अपना पेशा भी बदल लिया है ताकि आमदनी का जरिया सुरक्षित रह सके, लेकिन अब यर परंपरा खतरे में है।
स्क्रॉल कागज की चादरों से बने होते थे जिन्हें या तो एक साथ चिपकाया जाता था या एक साथ सिल दिया जाता था।
कागज को नुकसान से बचाने के लिए पुराने कपड़े या केलिको के एक टुकड़े को स्क्रॉल के अंत में सिल दिया जाता था।कपड़े के दोनों सिरों को बांस के गोल टुकड़ों में सिलकर, जिनमें से एक रोलर के रूप में काम करता था ताकि चारों ओर स्क्रॉल स्थायी रहे।
अंत में स्क्रॉल को सुरक्षित करने के लिए एक छोर से धागे को जोङा जाता था।
जदोपटिया चित्रों का रंग ज्यादातर सुनहरे पीले, बैंगनी और नीले रंग का होता है, जो प्राकृतिक पदार्थों जैसे कुछ पौधों की पत्तियों, मिट्टी और क्षेत्री फूलों से प्राप्त होती हैं। ब्रश बनाने के लिए बकरियों के बालों को एक छोटे से छड़ी या साही की कलम से बांधा जाता है। रंगों का उचित प्रयोग और चित्रों के आसपास घुमती कहानियों का मेल इस विराट कला को आकर्षित बनाते हैं।
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जादुपतुआ चित्रकारी, जो कि कई मायनों में दिव्यता का दर्पण है आज भी कुछ इलाकों तक सीमित है और यह सुनिश्चित है कि इन चित्रों को और इससे जुड़ी कहानियों को अभी और लंबा सफर तय करना है और इससे जुड़े लोगों को भी प्रोत्साहन देने का काम करना होगा।
Author: Tanya Saraswati Editor: Rachita Biswas
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